ब्लैकआउट “नफरत” राज
इस देश के दिल पर की है राज ठाकरे ने चोट, कोशिश है इस चोट से तिलमिलाए देशवाशियों को भड़काने की. राजठाकरे ने सिर्फ बिहारियों को धमकी नहीं दी, ये धमकी है पूरे देश के लिए. चोट है इस देश के संघीय ढांचे पर।क्या मुंबई या महाराष्ट्र किसी की बपौती है? नहीं, जितनी राज ठाकरे की है उतनी ही मेरी भी है. अब तक उत्तर प्रदेश और बिहार को नसीहत और धमकी देने वाले राज ठाकरे ने तो इस बार मीडिया को भी नहीं बख्शा. बैन करने तक की धमकी दे डाली और इसके उलट मिडिया है कि रविवार को पूरे दिन ख़बरों में राज ठाकरे को ही दिखाती रही.
जब असम में दंगों के बाद देश भर में एस.एम.एस. और सोशल मीडिया के जरिये कुछ लोग नफरत का जहर फैला रहे थे, तो सरकार ने कड़े कदम उठाये, गिरफ्तारियां हुईं और बल्क एस.एम.एस. पर बैन लगे, सोशल मीडिया पर कड़ाई की गई, मगर ये आदमी तो खुले मंच से नफरत का जहर उगल रहा है. अब सरकार कहाँ है. राज ठाकरे का कहना है कि अगर उनकी बात गलत तरीके से हिंदी मीडिया ने फैलाई तो वो उन्हें सबक सिखायेंगे, बैन कर देंगे. अरे राज साहब,हम जहर को अमृत कैसे कर दें?
राज ठाकरे रविवार को देश के हर चैनल पर छाए रहे, उनके धमकी भरे शब्द - "मीडिया को बैन कर दूंगा" बहस का मुद्दा बने. करीब करीब सबने उनकी आलोचना की, टीवी मीडिया के संपादकों ने इसे लोकतंत्र पर हमला बताया. मगर मेरा सवाल ये है कि अगर राज ठाकरे मीडिया को बैन करने की बात कर सकते हैं तो हम ये करके क्यों नहीं दिखा सकते. क्यों नहीं हम उन्हें बैन कर देते. वैसे भी उनके शब्द नफरत फ़ैलाने वाले हैं, दो राज्योंके लोगों के बीच तनाव पैदा हो सकता है. मुंबई और आस-पास के शहरों में बिहार के छात्रों पर हुए हमले की तस्वीरें अब भी याद हैं सबको.
अगर हम बिहारियों पर महाराष्ट्र में हुए पिछले हमलों को याद करें तो दीखता है की परीक्षा देने आये उन छात्रों पर हाले और तेज हो जाते जब टी.वी. कैमरे वहां होते, हमारे कैमरे से राज का कुछ बिगड़ा तो नहीं मगर हाँ ये जरुर हुआ की कुछ ज्यादा लोग पीट गए. टी.वी. पर तब भी ऐसी तस्वीरों को खासी जगह दी गई, हाँ बार-बार ये जरुर कहा गया की ये सरासर गुंडागर्दी है. मगर हमारे ऐसा कहने से हुआ तो कुछ भी नहीं, उलट पुरे देश ने तस्वीरें देखीं और तनाव का माहोल बना. मैं ये नहीं कहता की ऐसी चीजों को हमें रिपोर्ट नहीं करना चाहिए. मगर हमें इस तरह की ख़बरों को लेकर और संवेदनशील होना चाहिए - क्या दिखाएँ और क्या ना दिखाएँ- इसकी एक लकीर हमें यहाँ भी खींचनी होगी.
जो सावधानी कश्मीर से आने वाली तस्वीरों के साथ, या देश में अन्य जगहों पर हुए धार्मिक उन्माद के दौरान हम बरतते हैं वो क्यूँ नहीं ऐसी चीजों में भी लागू करते. अगर कश्मीर की तस्वीर खतरनाक है और हम नहीं दिखाते तो ये भी तो किसी के हीत में नहीं है, सिवाय राज ठाकरे के. ये तस्वीरें भी तो उन्माद पैदा करती हैं.
क्या हमें डर नहीं की ऐसे बयान सुनकर कहीं कोई और 'राहुल राज' बन जाए. राहुल राज ने २००८ के अक्तूबर महीने में मुंबई एक बस पर अपने देसी कटते के बदौलत कब्ज़ा कर लिया था और बाद में मारा गया. राहुल राज मेरे स्कूल से था और उसके पिताजी और मेरे पिताजी काफी दिन से एक दुसरे को जानते हैं. राहुल ऐसा नहीं था. बिलकुल भी खूंखार नहीं था. फिर क्यों किया उसने ऐसा? क्या हमने कभी सोचा है? नहीं असल में हम ऐसी घटनाओं के बाद शायद सोचते नहीं. और अगर सोचते हैं तो सुधार नहीं करते. करना चाहिए. वरना ऐसी बुरी ख़बरों से हम बच नहीं पाएंगे.
मेरा मानना है की अगर मीडिया खुद में ये फैसला कर ले की हम राज ठाकरे को अगले ३० दिन तक नहीं दिखायेंगे, बैन कर देंगे तो शायद इसका असर अलग होगा. हाँ ये दर जरूर है पुरानी घटनाओं के आधार पर ये कयास जरुर लगाये जा सकते हैं कि ऐसे में न्यूज चैनलों के दफ्तर पर हमले जरुर हो सकते हैं. ये जरुर हो सकता है कि मुंबई के एक-आध मीडिया हउस को निशाना बनाया जाए. मगर इस डर से क्या हम इनके नफरत की राजनीति को फ़ैलाने का जरिया बने रहेंगे. ऐसे हमलों से हम पहले भी दो चार हुए हैं, हमारे दफ्तर तोड़े गए हैं. पत्रकारों पर हमले हुए हैं, मगर इन्होने हमें मजबूत ही किया है. हमें इन जैसे लोगों से बहुत मजबूत हैं, हमारी कौम की इनसे कोई तुलना नहीं है, फिर क्या है जो सब जानने के बावजूद भी हमें इनके ऐसे बयानों को जगह देने को मजबूर करता है. सब कुछ बाजार नहीं होता, हम पर इसके अलवा बहुत बड़ी बड़ी जिम्मेदारियां हैं. कहते हैं हम देश के आँख और कान हैं, देश वही देखता है जो हम दिखाते हैं. फिर, सावधानी तो बरतनी होगी!
मैं सेंसर राज के खिलाफ हूँ, मगर यहाँ सेंसर जरुरी होता जा रहा है. अगर हमने राज के उन बयानों को नहीं दिखाया होता जिसमे वो जहर उगल रहे थे तो उनका वो बयान उस मंच से उनको सुनने वालों के अलावा कोई नहीं जान पाता.
मगर हमने उनके इस बयान को पूरे देश में सुनाया, दिखाया और बहस में तब्दील कर दिया. हालाँकि इस बहस में उनके लोगों के अलावा किसी ने उनका साथ नहीं दिया, मगर जो वो चाहते थे वही हमने किया. राज ठाकरे को चर्चा का केंद्र बना दिया. यहाँ तक की रविवार को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी एक प्रेस वार्ता के दौरान राज पर बिफर पड़े, हालाँकि ये प्रेस वार्ता किसी और मुद्दे पर थी, मगर अंततःकेंद्र बन गए राज और उनकी टिपण्णी. नीतीश कुमार ने उन्हें सिरफिरा तक बुला दिया.
इस बहस के बीच जिन दो लोगों के 'नंबर' में इजाफा हुआ है वो हैं सिर्फ राज ठाकरे और कमोबेश नितीश कुमार. जहाँ एक तरफ राज ने अपने मतदाताओं को ये यकीन दिलाने की कोशिश की है की बिहारी और उस प्रांत के आस-पास के लोग तुम्हारे समस्याओं की जड़ हैं और मैं इस समस्या को ख़त्म कर दूंगा; वहीँ दूसरी तरफ नितीश कुमार को बिहारी अस्मिता जगाने का फिर से मौका मिला. जमकर बरसे राज ठाकरे पर, और बरसते ही जा रहे हैं.
जिस दिन ये मामला सबसे गर्म था, रविवार २ तारीख को, उस दिन मेरी बीजेपी के एक नेता से बात हुई, उनका साफ़ कहना था ‘'नितीश कुमार को राज जैसे लोगों पर टिपण्णी नहीं करनी चाहिए, बिना मतलब वो उसे और माइलेज दे रहे हैं, और सिरफिरा जैसे शब्द तो उन्हें कतई इस्तेमाल नहीं करने चाहिए. उन्हें इस बाबत सीधा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से बात करनी चाहिए या फिर केंद्र में, बेकार हवा दे रहे हैं'’.
बेकार हवा देना - बिलकुल यही काम कर रहे हैं हम. या तो हम ये ना कहें की ये लोकतंत्र पर हमला है, या अगर कहें या समझें तो ब्लैकआउट कर दें ऐसे बयानों को.
रविवार से सोशल मिडिया पर मैं राज ठाकरे के बयान पर चर्चा देख रहा हूँ, अधिकतर लोगों की राय है की अगर मिडिया राज को कुछ दिन के लिए 'ब्लैक आउट' कर दे तो वो लाइन पर आ जायेंगे. एक वरिष्ट पत्रकार ने फेसबुक पर लिखा है "एक समय ऐसा था जब ऐसे नेताओं को मीडिया जगह नहीं देती थी, मगर आज टीआरपी के खेल ने सब बदल दिया है और ये शर्मनाक है". हम क्यों नहीं अपने अन्दर की आवाज सुनते और जागते हैं.
डर इस बात का है की जैसे असम में हुए हिंसा के जरिये देश भर में नफरत फ़ैलाने की कोशिश की गई कहीं कुछ ऐसा इस 'राज नेता' के बयान से भी हुआ तो. हमारे देश को लोग समझदार हैं,शांत स्वभाव के हैं, मगर समाज में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो ऐसे मौके की तलाश में रहते हैं जो चिंगारी को आग में तब्दील करदें. अगर ऐसा हुआ तो हम अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग पाएंगे. हम मुजरिम होंगे, नफरत फ़ैलाने वाले को 'जरिया' देने के.
जब हम खुद ये मानते हैं कि ये लोकतंत्र पर हमला है तो फिर हम खुद इसे जगह क्यों दे रहे हैं. हम कड़े फैसले क्यों नहीं लेते.
राजनीति अपनी जगह है, मगर ये कहीं से भी राजनीति नहीं, ये ‘नफरतनीति’ है. और ऐसीनफरतनीति को यहीं रोकने में सबके भलाई है. अगर सरकार कुछ नहीं करती तो कम से कम हम अपना फर्ज तो निभा सकते हैं. मीडियाको इस देश में चौथा स्तम्भ कहा गया है, इतिहास गवाह है हमने हर बार सही समय पर जाग कर इस देश को राह दिखाई है. ऐसे में एक 'राज ठाकरे' जैसे पृथकतावादी नेता को कैसे बढ़ावा दे सकते हैं. इस हवा के झोंके को इस दिशामें आगे बढ़ने से रोकने में हमें भी अपना योगदान देना पड़ेगा. अगर हमने इसे और हवा देना बरक़रार रखा तो कहीं ये बवंडर देश को महंगा न पड़े. अगर ऐसा हुआ तो फिर हम भी उस अदालत में उसी तरफ खड़े पाए जायेंगे, जिस तरफ 'नफरत राज' होगा.
This article was published in Jansatta.
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