Saturday, January 26, 2013

Preface to the book - Annandolan: Sambhavnayen Aur Sawal





एक आदमी
रोटी बेलता है 
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।
- धूमिल
संसद मौन, जनता आंदोलनरत. अपने हकों से महरूम किये जाते लोग और संसद मौन. भ्रष्टाचार का समंदर उमड़ा चला आया है आम आदमी के जीवन में और उसके अस्तित्व को निगल जाने के लिए तैयार है और संसद मौन. आम आदमी अपने हकों की लड़ाई में सड़कों पर. धूमिल की यह कविता पिछले दिनों बार-बार जेहन के किसी कोने पर दस्तक देती रही. कई सवाल पैदा होते रहे मन में. सवाल जो अन्ना के आंदोलन ने हर आदमी के मन में पैदा किये थे. इस सवाल का जवाब तलाशा जाना जरूरी लगने लगा था. और इसी तलाश का परिणाम है यह किताब.

यह किताब जब तक आपके हाथों में पहुँचेगी तब तक शायद काफी कुछ बदल चुका होगा. लोकपाल पर छाई धुंध बहुत मुमकिन है, तब तक काफी छंट गई हो. नयी रणनीतियां बनायी जा चुकी होंगी. नये मोर्चे खोले जा चुके होंगे. लोक सभा और राज्य सभा में २०११ के अंत में जो हुआ उससे ये तो साफ हो चुका है की अगर ये बिल पास हुआ भी तो उस रूप में नहीं हो सकेगा जिसके लिए अन्ना हजारे ने अप्रैल और अगस्त में देश को हिला कर रख दिया था. अन्ना के आंदोलन में सोच की हदों से पार जाने वाले जन-सैलाब ने अन्ना के सुर में सुर मिलाकर जिस जनलोकपाल बिल की मांग की थी, वह फिलहाल काफी पीछे छूट गया है. ऐसी उम्मीद कभी नहीं थी कि संसद हूबहू वही ड्राफ्ट पारित करेगी, जिसकी पैरोकारी टीम अन्ना कर रही थी. यह बात अन्ना हजारे और उनकी टीम को भी भली-भांति मालूम थी. जो भी हो, लोकपाल बिल पर पिछले बयालीस सालों से बैठे रहने के बाद आखिरकार अगर राजनीतिक दलों को इस बिल पर दो कदम भी आगे बढ़ना पड़ा तो इसका श्रेय अन्ना हजारे के आंोदालन को ही जाता है. 

इसमें कोई शक नहीं कि अन्ना हजारे और उनके साथियों द्वारा किया गया आन्दोलन आधुनिक भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण पड़ाव का दर्जा पाने का हकदार है. आप चाहे अन्ना के विरोधी ही क्यों ना हों, यह माने बिना नहीं रह सकते कि जन लोकपाल की मांग और उसे लेकर हुए आन्दोलन ने जो माहौल बनाया, उसी की बदौलत कमजोर ही सही लोकपाल नाम की संस्था को जन्म देने के लिए सरकार मजबूर दिखाई पड़ रही है. फिलहाल सवाल कब का है, न कि हाँ या न का. राजनीति की बंजर हो चुकी जमीन पर इसकी तुलना असीम आशाओं से भरे कोंपल से ही की जा सकती है. 

ये किताब मूलतः जनलोकपाल कीे माँग को लेकर हुए ‘आन्दोलन’ के इर्द-गिर्द घूमती है. लोकपाल बिल के अलग-अलग ड्राफ्ट, उसे लेकर विभिन्न समूहों की अलग-अलग राय, इस बहस को मुकम्मल बनाते हैं.  लोकपाल के अलग-अलग मसौदों पर भी किताब में चर्चा की गयी है. जनलोकपाल के आन्दोलन के दौरान जिस तरह टीम अन्ना ने संसद में बैठे नेताओं पर हमले किये उसे लेकर काफी शोर मचा, इसके मकसद और चरित्र पर सवाल उठाये गए. ऐसा नहीं की सिर्फ यही एक मुद्दा उठा, इसके अलावा भी अन्ना के आंदोलन पर तरह-तरह की टिप्पणियां की गईं. जो भी सवाल हों, कितने भी संशय हों, एक बात तो इतिहास में दर्ज हो चुकी है की जनता अन्ना के समर्थन में सडकों पर उतरी. हालाँकि अन्ना के मुंबई अनशन के दौरान उतनी भीड़ नजर नहीं आयी जितनी दिल्ली के जंतर-मंतर और रामलीला मैदान में नजर आयी थी. तबियत बिगड़ने के कारण अन्ना को मुंबई में अपने तीन दिनों के प्रस्तावित अनशन को दो दिन में ही खत्म करना पड़ा. साथ ही अनशन समाप्त होने के बाद प्रस्तावित ‘जेल भरो’ आंदोलन को भी रद्द करना पड़ा. खैर बात पहले आंदोलन के जन्म की करते हैं. 

सवाल है- आखिर अन्ना के आंदोलन के समर्थन में देश के विभिन्न हिस्सों में भीड़  जुटी क्यों? क्यों, कैसे और कब अन्ना लोगों की उम्मीद का दूसरा नाम बन गये? इसके साथ ही आता है यह सवाल कि क्या अन्ना और उनकी टीम द्वारा अख्तियार किया गया तरीका सही था? क्या अन्ना का आन्दोलन ‘एक वर्ग’ तक सीमित आन्दोलन रहा? अन्ना के टीम के सदस्यों पर जो आरोप लगे क्या वे सही थे? क्या टीम अन्ना का जादू हिसार के लोक सभा उपचुनाव में सच में चला? ये ऐसे सवाल हैं जिन पर बहस जरूरी है. इन्हीं सवालों का जवाब खोजने की कोशिश की उपज है यह किताब. 

वल्र्ड कप की जीत और अन्ना का अनशन 

कहते हैं कि हमारे देश को क्रिकेट का नशा है. अफीम की तरह. तारीख दो अप्रैल 2011. महेंद्र सिंह धोनी के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट टीम ने आखिरकार अठाईस सालों के इंतजार के बाद वल्र्ड कप का तोहफा इस क्रिकेट के दीवाने देश को दिया . तथाकथित खाए-पीए और अघाए मध्य वर्ग के लिए जो हर समय क्रिकेट की जुगाली करता रहता है, उसके लिए वल्र्ड कप की जीत से बड़ा नशा और क्या हो सकता था? पूरा देश इस जीत की खुमारी में डूबा हुआ था. अभी क्रिकेट से पैदा हुई देशभक्ति की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी की पांच अप्रैल 2011 कोे अन्ना हजारे ने अपना आमरण अनशन दिल्ली के जंतर-मंतर पर शुरू कर दिया. टीवी पर छोटी सी खबर चली थी. ज्यादातर न्यूज चैनलों के न्यूज रूम का मत यही था कि अन्ना आएंगे, आंदोलन करेंगे और चले जाएंगे. जंतर-मंतर पर होने वाले बाकी प्रदर्शनों की तरह यह आंदोलन भी बस शुरू होकर खत्म हो जायेगा. लेकिन ऐसे सारे कयाास गलत साबित होने वाले थे. जंतर-मंतर परऐसा जन-सैलाब उमड़ा जिसकी कल्पना हममें से किसी ने शायद ही की थी. अन्ना और उनके सहयोगियों ने एक ऐसा मुद्दा उठाया था जिसका वास्ता देश को सालने वाले घुन भ्रष्टाचार से था. जनलोकपाल के लिए अन्ना का आंदोलन देश-भक्ति से जुड़ गया. आवाज ये दी गई की अगर आप देश भक्त हैं तो आपको अन्ना के साथ होना चाहिए. अन्ना एक ऐसे रोग का इलाज बता रहे थे, जिससे आम आदमी का रोेज का नाता था. जनलोकपाल को आम आदमी ने सभी मर्जों की एक दवा के तौर पर देखा. और वे अन्ना के साथ हो लिए. 
जंतर-मंतर की वह शाम

आने वाले कुछ महीनों में जिस आंदोलन की लहरें पूरे देश को अपने जद में लेने वाली थी उसकी पृष्ठभूमि काफी लंबे समय से पर्दे के पीछे से तैयार की जा रही थी. अन्ना, अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया  वो लोग थे जिनको सब देख रहे थे, मगर टीम अन्ना में कुछ ऐसे भी लोग थे जो सबकी निगाहों से दूर आन्दोलन को खड़ा करने काम कर रहे थे. सबके पास अलग अलग जिम्मेदारी थी. कोई इन्टरनेट के जरिये समर्थन जुटा रहा था, तो कोई मडिया के लोगों को यह समझाने में लगा था की क्यों यह आन्दोलन जरूरी है . मिडिया से जुड़े होने के कारण ऐसी ख़बरें मेरे पास भी आती थीं, मगर कभी यह नहीं सोचा था की यह सारी कवायद इस कदर जनता के आंदोलन में तब्दील हो जायेगी. जंतर मंतर की उस शाम ने वह भ्रम तोड़ दिया.

हालाँकि जनलोकपाल बिल के मसौदे को एक प्रेस कांफ्रेंस में 1 दिसंबर 2010 को ही दिल्ली में पेश किया गया. मगर तब न तो इस बात की ज्यादा चर्चा हुई न ही किसी ने इस ओर ज्यादा ध्यान ही दिया. इसके बाद जनवरी 2011 के आखिर में देश और विदेश के बावन शहरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मार्च निकाला गया. अन्ना भी इसमें शामिल थेे. 31 जनवरी को देश के सभी प्रमुख राजनितिक दलों को टीम अन्ना की ओर से एक चिट्ठी लिखी गई. मांग थी- भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करने के लिए एक मजबूत संस्थान का गठन किया जाये- एक मजबूत लोकपाल का गठन किया जाए, जिसे अन्ना की टीम ने जनलोकपाल का नाम दिया था।

अन्ना हजारे ने फरवरी में प्रधानमंत्री को कई पत्र लिखकर उनसे जनलोकपाल बिल पर कमेटी बनाने की मांग की और उसमें सिविल सोसाइटी के लिए बराबर की हिस्सेदारी मांगी, यानी पांच सदस्य सरकार के और पांच सिविल सोसाइटी के. इन पत्रों में अन्ना ने मांग नहीं माने जाने पर अप्रैल पांच से अनशन पर बैठने के अपने फैसले के बारे में भी बताया था. एक दूसरे को पत्र भेजे जाने का सिलसिला चलता रहा. दोनों पक्ष एक दूसरेे को लिखते रहे. प्रधानमंत्री और अन्ना की मुलाकात भी हुई मगर बात नहीं बनी. अन्ना अपनी मांगों पर अड़े रहे, और सरकार अपनी. 

चार अप्रैल को अन्ना के अनशन की घोषणा एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान की गई और पांच अप्रैल से जंतर मंतर पर अनशन पर बैठ गए. उनके साथ और भी कई लोग अनशन पर बैठे. अब तक ज्यादातर लोगों की तरह मुझे भी नहीं लगा था की आज की तेज रफ़्तार जिंदगी में लोग इस आंदोलन के लिए वक्त निकालेंगे और अन्ना के समर्थन में जंतर-मंतर पहुंचेंगे. पहले दिन, यानी पांच अप्रैल की तस्वीरों को देखकर लगा भी कुछ ऐसा ही. मगर 6 अप्रैल की शाम तक मामला बदलता नजर आया. जंतर-मंतर जमा होने वाली भीड़ के हिसाब से छोटा पड़ने लगा था. गाड़ियों के लिए चारों तरफ से प्रवेश बंद करना पड़ा. भीड़ अब गिनती से बाहर हो गई थी. पुलिस बलों का काम करना मुश्किल होने लगा. कल तक जो मीडिया एक या दो कैमरे से काम चला रही थी उसे अब वहां तैनाती दोगनी - चैगुनी करनी पड़ी. हर न्यूज चैनल पर अब बस अन्ना, मैं भी अन्ना और ‘वी वांट जन लोकपाल’ की तस्वीर नजर आने लगीं . 

6 तारीख को मैं दफ्तर में ही था. देर शाम की शिफ्ट थी. आँखों के आगे एक-एक कर जो तस्वीरें आ रही थी, उन्हें देख भरोसा नहीं हो रहा था, इतने लोग, एक जगह, कैसे? और भी अचंभा तब हुआ जब कुछ ऐसी ही तस्वीरें मुंबई के आजाद मैदान, बंगलुरू, लखनऊ, गुवाहाटी से लेकर हर प्रमुख शहर से आती दिखीं. मुंबई के आज़ाद मैदान से आने वाली तस्वीरों में फिल्म जगत के लोग अन्ना के नाम की टोपी लगाये दिख रहे थे, तो वहीं बंगलुरू में लंबी कतारों में लोग अन्ना के समर्थन में मोमबत्तियां लिए चले जा रहे थे. एक पल के लिए इन पर यकीन करना आसान नहीं था.

उधर सरकार और टीम अन्ना के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया था. टीवी चैनलों पर दिखने वाली भीड़ ने सरकार को समझौते का रास्ता चुनने पर विवश कर दिया था. बीच का रास्ता, किसी समझौते का रास्ता निकालने के लिए ? सरकार को हालात समझ में आ गए थे . वह देख रही थी कि मामला बिगड़ सकता हैै, जनता सड़कों पर आ रही है. ख़बरों से लगा एक दो दिन में सब निपट जायेगा और सुलह का रास्ता निकल जायेगा. 6 तारीख के शाम को चाय पीते-पीते तय हुआ, कल चलते हैं जंतर-मंतर, जरा सामने से भी देख लें माहौल कैसा है? 

अप्रैल 7 को शाम करीब पांच बजे जंतर-मंतर पहुँचा . कुछ और साथी भी साथ थे. वहां जो माहौल देखने को मिला उसे शब्दोंे में बयान कर पाना मुमकिन नहीं है. चारों ओर लहराता तिरंगा, गीत गाते हुए लोग. किसी को किसी की परवाह ही नहीं थी. ‘लोकपाल-लोकपाल, पास करो जनलोकपाल’ गीत की धुन पर तालियाँ बजाते लोग. आन्दोलन, हाँ ऐसा ही लगा. यह आन्दोलन ही तो था. बीच-बीच में देश भक्ति के गाने भी गाये जाते, जो सबके अन्दर के दबे जज्बे को जीवित कर जाते. 

शाम होने के साथ-साथ भीड़  भी बढ़ रही थी, और इस भीड़ में दिख रहे थे कुछ अलग तरह के चेहरे.अमूमन ये चेहरे शाम को दिल्ली के बड़े होटलों और रेस्तरां या मॉल में देखने को मिलते हैं, मगर अप्रैल के उन दिनों में ‘अगर आप जंतर-मंतर नहीं गए तो फिर क्या किया’ जैसी सोच बन गई थी. हर कोई वक्त निकाल कर वहाँ जाना चाहता था. दूर सड़क किनारे खड़े ये लोग बस तस्वीर खीच रहे थे, खिचवा रहे थे. अधिकतर लोग ऐसे थे जो चाहते थे की अगर कोई उनसे यह सवाल पूछे कि क्या तुम जंतर-मंतर गए थे, तो उनका जवाब ‘हाँ’ ही हो. 

भ्रष्टाचार के आरोपों से हलकान सरकार नहीं चाहती थी कि यह सारा प्रकरण ज्यादा दिन तक चले. खासतौर पर जंतर-मंतर में जुटने वाली भीड़ जिस तरह से राजनीतिक वर्ग और खासकर से सरकार के खिलाफ नारे लगा रही थी, उसे देखते हुए कहीं न कहीं सरकार को यह लग रहा था कि सारा माहौल उनके खिलाफ बन रहा है. वह अपने खिलाफ बन रहे माहौल को ज्यादा उग्र नहीं होने देना चाहती थी. सरकारी संदेशवाहक टीम अन्ना से अनशन को समाप्त कराने के लिए बातचीत कर रहे थे. अंततः सरकार को अन्ना के आगे झुकना पड़ा, इतिहास बना और बिल तैयार करने के लिए एक संयुक्त समिति बनाई गई, जिसमे पांच सरकारी और पांच टीम अन्ना के सदस्य रखे गए. खूब जश्न मनाया गया. जीत का जश्न. इसे टेलीविजन चैनलों पर जनता की जीत, ‘लोकतंत्र की जीत’, ‘पीपल्स विक्टरी’ की तरह पेश किया गया. जश्न के साथ ही अन्ना ने सरकार को 15 अगस्त तक बिल पास करने को कहा.   

संयुक्त समिति की बैठकें हुईं, मगर नतीजा सिफर. दोनों अपनी-अपनी बात पर अड़े रहे. अन्ना और उनकी टीम सरकार से नाराज हुई, सरकार ने भी टीम अन्ना के ऊपर अपनी नाराजगी जाहिर की. सरकार के मंत्रियों और सिविल सोसाइटी के बीच बैठक तो हुई लेकिन किसी मुद्दे पर सहमति नहीं बन पाई. उल्टे तू तू मैं मैं की नौबत आ गई. दरअसल ऐसा शुरू से लग रहा था कि बात बननी ही नहीं है. अन्ना ने घोषणा की कि अगर मानसून सत्र में लोकपाल बिल पास नहीं कराया गया तो 16 अगस्त से वे फिर से अनशन करेंगे.

इस बार सरकार अपनी तरफ से पूरी तैयारी कर ली थी. इरादा था, अन्ना के आंदोलन को शुरू होने से पहले ही समाप्त करना. सरकार मजबूती से अन्ना के आंदोलन को दबाने का मन बना चुकी थी. अनशन की जगह से लेकर सभी मुद्दों पर दोनों पक्षों में खूब तनातनी हुई. 16 अगस्त आया. 16 तारीख के तड़के अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया. टेलीविजन चैनेल पर गिरफ्तारी की लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे. देश  ने जब आंखें खोली, इस खबर को आये एक घंटा हो चुका था. सैकड़ों की संख्या में लोग अन्ना को ले जा रही गाड़ी के साथ हो लिए थे. अन्ना अनशन को आंदोलन की शक्ल देना चाहते थे, सरकार ने उन्हें गिरफ्तार करके शुरू होने से पहले ही एक आंदोलन को जन्म दे दिया. अन्ना के इस कदम को पहले ही भांप चुके थे. उन्होंने देश के नाम सन्देश एक सी.डी. में रिकॉर्ड करवाया था. इस सी.डी. को मीडिया के लोगों को बांटा गया. अन्ना ने अपने सन्देश में अपनी गिरफ्तारी की स्थिति में जेल भरो का आह्वान किया था और शांति बनाये रखने की अपील भी. 

अन्ना को तिहाड़ जेल ले जाया गया. अन्ना समर्थक पूरे शहर में नजर आ रहे थे. तिहाड़ के सामने भीड़ बढ़ती जा रही थी. यही हाल छत्रसाल स्टेडियम का था, जहां अन्ना के समर्थकों को गिरफ्तार करके लाया गया था. हजारों की संख्या में लोग बारिश की परवाह किये बगैर वहां जमा होने लगे थे. टीवी पर सरकार की आलोचना हो रही थी. इस कदम को लोकतंत्र का गला घोंटा जाना करार दिया रहा था. सरकार का  दांव उलट कर उसी पर पड़ा था. शाम तक वह अन्ना को रिहा करने का फैसला कर चुकी थी. मगर अन्ना सरकार के कुछ शर्तों के कारण बाहर नहीं आना चाहते थे. वे अपना अनशन जेपी पार्क में ही करना चाहते थे, जिसके लिए सरकार तैयार नहीं थी. अंततः दोनों पक्षों में बातचीत के बाद अन्ना को रामलीला मैदान में जगह दी गई. मगर एक शर्त के साथ - अनशन 15 दिन से ज्यादा न चले. 19 अगस्त को अन्ना का काफिला तिहाड़ जेल से रामलीला को निकला, बारिश के बावजूद अन्ना हजारे खुली गाडी की छत पर समर्थकों का अभिवादन स्वीकार करते रहे और काफिला धीरे धीरे रामलीला मैदान पहुंचा.

अन्ना के साथ साथ उनके समर्थकों का हुजूम भी रामलीला आ पहुंचा. जिधर देखो उधर अन्ना की टोपी, अन्ना की तस्वीर वाले कपडे, बैनर इत्यादि नजर आने लगे. ये नजारा कई दिनों तक बना रहा. 

उधर सरकार और टीम अन्ना के बीच बातचीत चलती रही. कई नए चेहरे उतारे गए जो दोनों में समझौता कराने की कोशिश करते रहे. संसद ने भी अन्ना से अनशन तोड़ने की अपील की, प्रधानमंत्री ने वादा किया की बिल पर सदन में बहस करवाएंगे. 27 अगस्त को बिल पर बहस शुरू हुई, सभी पार्टियों ने अपना मत रखा. ‘सेन्स ऑफ दी हाउस’ से अन्ना को अवगत कराया गया. अगली सुबह अन्ना ने अपना अनशन तोडा.
ये तय हो गया की अब जल्द से जल्द भी अगर लोकपाल बिल सदन में आएगा तो वो होगा शीतकालीन सत्र में. अगस्त के इन दिनों से शीतकालीन सत्र तक सरकार, विपक्ष और टीम अन्ना तीनों लोकपाल को लेकर काफी व्यस्त रहे. सरकार, कांग्रेस और टीम अन्ना के बीच हर बीतने वाले दिन के साथ तल्खी बढती जाती. ये भी साफ़ होने लगा था की सरकार अब बिल तो लाएगी मगर ऐसा कुछ भी नहीं होगा की टीम अन्ना की बातों को पूरी तरह माना जायेगा. खैर आरोपों - प्रत्यारोपों में समय बीता और शीतकालीन सत्र भी आ पहुँचा. 

सत्र से ठीक पहले अन्ना ने एक बार फिर दिल्ली के जंतर मंतर पर एक दिन का अनशन किया, और अपने अगले अनशन की घोषणा भी कर दी. सत्र शुरू हुआ, और जैसा लग रहा था बिल लोक सभा में पेश हुआ. सभी पार्टी के नेताओं के धमाकेदार भाषण हुए, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह यादव ने कड़ा विरोध जताया और बिल में संषोधन की मांग की. विरोध में सबसे कटु रही शिव सेना, सेना के सांसदों ने तो लोकपाल की तुलना गद्दाफी से की. खैर अंततः लोक सभा में बिल कई संषोेधनों के साथ पास हुआ. मगर सरकार की भारी किरकिरी हुई. कांग्रेस के महासचिव राहुल गाँधी का लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिलाने का सपना टूट गया. लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिलाने के लिए संषोधन पास नहीं हो सका.  

ये तो जैसे शुरुआत थी सरकार के किरकिरी की. बिल राज्य सभा में पेश हुआ. तेरह घंटे तक बहस भी चली, मगर लोकपाल बिल अटक गया. सरकार लोकायुक्त के मुद्दे पर बुरी तरह फंस गई, अकेली पड़ गई. विपक्ष तो विपक्ष है, अपने साथी दल तृणमूल कांग्रेस ने भी साथ नहीं दिया. तृणमूल कांग्रेस चाहती है कि बिल से लोकायुक्त को पूरी तरह हटा दिया जाए। कानून सिर्फ लोकपाल का बने. विपक्ष वोटिंग चाहता था लेकिन सरकार ने हार के डर से वोटिंग नहीं कराई. सत्र खत्म हो गया, साफ़ हो गया की लोकपाल बिल लटक गया है. सबने जमकर सरकार की खिंचाई की, चाहे वो विपक्ष हो या टीम अन्ना. 

हालाँकि, सरकार ये भरोसा अब भी दिला रही है कि बजट सत्र में वो बिल को फिर से पास कराने की कोशिश करेगी. लेकिन सवाल ये है कि बजट सत्र में भी सरकार क्या कर लेगी। राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत का आंकड़ा नहीं है। ऐसे में सरकार किस स्वरुप में पास करा सकेगी बिल? 

ऐसे में टीम अन्ना अब आगे क्या करेगी? मुंबई में जनसमर्थन के कमी ने पहले ही उन्हें कमजोर कर दिया है, टीम के सदस्य अरविंद केजरीवाल ने एक अखबार में लेख के जरिये ये कहा कि ‘‘भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन फिलहाल एक चैराहे पर है. यहाँ से हम किधर जाएँ? हमें मालूम है की एक गलत कदम इस आन्दोलन के लिए घातक सिद्ध हो सकता है. ये जनता का आन्दोलन है. उनके जुड़ने से ही ये आन्दोलन सफल हुआ. अब लोग सुझाएँ आगे का रास्ता‘‘‘. इस लेख के जरिये केजरीवाल ने जनता से सुझाव मांगे. जाहिर है, मुंबई अनशन और लोक सभा एवं राज्य सभा में जो कुछ भी हुआ उसके बाद टीम अन्ना आन्दोलन के भविष्य को लेकर चिंतित है. 

बहस की बिसात

इस संग्रह में बहस की शुरुआत की गई है मनीष सिसोदिया के लेख से. वो इस किताब के केंद्र अन्ना और अन्ना आन्दोलन से काफी करीब हैं. मनीष ने अपने लेख में आन्दोलन और जनलोकपाल बिल, जो उनकी टीम ने तैयार किया, के हर पहलू को छुआ है. 

जनलोकपाल बिल पर कोई भी बहस अन्ना के बाद इस आन्दोलन का चेहरा माने जाने वाले अरविंद केजरीवाल के विचारों को समाहित किये बगैर पूरी नहीं हो सकती. अरविंद केजरीवाल से जनलोकपाल बिल और आंदोलन पर हमने बात की है. अरविंद के जवाब संक्षिप्त रहे, लेकिन फिर भी उनसे साक्षात्कार इस किताब को पूर्ण बनाता है. 

लोकपाल को लेकर शुरू हुई लड़ाई के पहले कुछ दिनों तक टीम अन्ना के साथ रहीं अरुणा रॉय और निखिल डे ने अपने लेख के जरिये अपने बिल और टीम अन्ना के बिल के बीच की फर्क को चिन्हित किया है. इन्होंने बहस को आगे बढ़ाते हुए उन बिन्दुओं पर बात की है जिनपर टीम अन्ना और इनके बीच यानी सूचना के अधिकार का राष्ट्रीय अभियान (एन.सी.पी.आर.आई) और इंडिया अगेंस्ट करप्शन (आई.ऐ.सी.) के बीच मतभेद उभरे. अरुणा और निखिल ने ये सवाल भी उठाया है की कैसे कोई एक समूह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने का दावा कर सकता है? 

अन्ना के आन्दोलन के दौरान ही माँग उठी एक बहुजन लोकपाल बिल कि, और इस माँग को लेकर मुखर रहे डॉ.उदित राज. डॉ.उदित ने अपने लेख में बहुजन लोकपाल बिल की बात की है जिसमे मूलरूप से पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की बात कही गयी है. उनका मानना है की अन्ना हजारे के आन्दोलन ने मध्यम वर्ग को भावुक कर दिया, इस वर्ग को एक आशा की किरण नजर आने लगी कि अब भ्रष्टाचार से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। मगर साथ ही उदित ये भी कहते हैं की इस गुस्से एवं आक्रोश के पीछे जातीय भावना भी काम कर रही थी और आंदोलन की रीढ़ सवर्ण मध्यम वर्ग है.

टीवी पत्रकार आशुतोष ने जनलोकपाल आन्दोलन के सकारात्मक पहलू को छुआ है. लेख में आशुतोष ने अन्ना के आन्दोलन के छोटे से शुरुआत से देशव्यापी विकराल रूप लेने तक की तस्वीर को खींची है. 

इस बहस को एक नया आयाम देने वाले अपने लेख ‘‘भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से उभरे कुछ सवाल’’ में समाजसेवी संदीप पाण्डेय ने अन्ना की टीम पर कुछ गंभीर सवाल उठाये हैं. हालाँकि संदीप लिखते हैं की इस आन्दोलन ने लोकतंत्र में जन शक्ति के महत्त्व को स्थापित करने का काम किया, मगर साथ ही उन्होंने ये भी लिखा है की अन्ना और उनके साथियों को अपना नजरिया व्यापक करना होगा और अपनी विचारधारा भी स्पष्ट करनी होगी. 

जनलोकपाल आन्दोलन में आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रवि शंकर की और उनके संस्थान आर्ट ऑफ लिविंग की सक्रिय भूमिका रही. किताब के लिए पूरे मामले पर उनका साक्षात्कार लिया गया. 

पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता शकील अहमद ने अपने लेख के जरिये टीम अन्ना पर कड़ा प्रहार किया है. शकील अहमद ने इस आन्दोलन को देश के खिलाफ कुछ स्वार्थी ताकतों का ‘‘तीसरा षड़यंत्र बताया है.’’ 

जाने माने स्तंभकार और भारतीय जनसंचार संस्थान में असोषिएट प्रोफ़ेसर आनंद प्रधान ने अपने लेख में अन्ना के आन्दोलन की आलोचना तो खूब की है मगर साथ ही ये भी साफ़ किया है की इन सबके बावजूद इस आन्दोलन को खारिज नहीं किया जा सकता. आनंद प्रधान ने अपने लेख इस बात पर भी जोर डाला है की वैसे सत्तापरस्त, भ्रष्ट और जनविरोधी ताकतों की पोल खोली जानी जानी चाहिए जो संविधान और संसद की आड़ लेकर इस आन्दोलन को ख़ारिज करने की कोशिश कर रहे हैं. ‘‘हुंकार से मौन तक, मौन की हुंकार’’ लेख से वरिष्ठ पत्रकार विजय विद्रोही ने अन्ना के अनशन को लेकर न्यूज-रूम में हुए हलचल को शब्दों में उकेरा है. अपने लेख में स्तंभकार और मीडिया क्रिटिक डॉ.वर्तिका नंदा ने अन्ना और उनके आन्दोलन पर कई सवाल उठाये हैं. डॉ. नंदा ने यहाँ तक लिखा है की अन्ना को अन्ना, मिडिया ने बनाया, इस आन्दोलन को मिडिया के कैमरों से जोड़ते हुए डॉ.नंदा ने इसके दौरान पैदा हुए कई नए चेहरों कि बातें कि हैं. 

अर्थशास्त्री प्रवीन झा और उनके सहयोगी राम गति सिंह ने अपने लेख में अन्ना के आन्दोलन के महत्वपूर्ण योगदानों के साथ साथ इस आन्दोलन की प्रजातान्त्रिक प्रकृति, इसकी दिशा और संभावनाओं पर चर्चा की है. साथ ही जनलोकपाल कानून के संकीर्ण दायरे, व्यावहारिकता एवं विसंगतियों पर भी अपनी राय दी है.  

जेद्दाह में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार और अरब न्यूज के संपादक सयैद फैसल अली ने अपने लेख में एक तरफ तो अन्ना के आन्दोलन की तुलना अरब विद्रोह से की है, मगर साथ ही उन बिन्दुओं पर भी चर्चा की है जिन्हें वो इस आन्दोलन की कमी मानते हैं. 

हिंदी के सुपरिचित अलोचक वीरेन्द्र यादव ने अपने लेख भूख, भ्रष्टाचार और अन्ना आन्दोलन में अन्ना के अनशन की तुलना महात्मा गाँधी और भगत सिंह के अनशन से करते हुए उनके बीच के फर्क को उजागर किया है. छात्र नेता और जे.एन.यू. की पूर्व उपाध्यक्ष शेफालिका शेखर ने अपने लेख मेरे चश्मे से अन्ना का जनलोकपाल आंदोलन के जरिये इसे एक वर्ग विशेष का आन्दोलन तो बताया ही है साथ साथ इससे जुड़े अधिकतर सदस्यों पर भी सवालिया निशान लगाया है. 

वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार सुधांशु रंजन ने अपने लेख में अन्ना के आन्दोलन पर बात करते हुए ये लिखा है की इस देश को हिलाने की ताकत अभी भी केवल फकीरों में है, थैलीशाहों में नहीं. लेख में टीम अन्ना को लेकर जनता में उत्साह के घटने, उनके कारण और टीम के अन्दर के बिखराव पर भी बात की गई है. महात्मा गाँधी के सामजिक और वैचारिक इतिहास पर काम करते आ रहे त्रिदिप सुहरुद ने अपने लेख में प्रश्न उठाया है क्या अन्ना और उनके आन्दोलन की तुलना गाँधी और उनके आन्दोलन से की जानी चाहिए? 

किताब में शामिल किये गये लेख एक तरह से एक लोकतांत्रिक स्पेस की रचना करते हैं. आपस में बहस करते हैं और आगे की बहस का रास्ता तैयार करते हैं. मेरी भूमिका इस पूरी किताब में बस एक डाकिये की रही है. शुरू से यही चाहता था. अलग-अलग वर्गों और समूहों के लोगों से बात की. आग्रह किया, लिखें. एक समग्र किताब होगी जो हर पहलू से पाठकों को रूबरू कराएगी. जितने लोग, उतनी बातें. सबका अपना विचार, यानी किताब को बहस के एक मंच के रूप में खड़ा किया जा सके. ऐसा दावा नहीं है की हर पहलु को छू सका, मगर कोशिश जरूर की. कुछ लोग समय की कमी के कारण लिख नहीं पाये, कुछ इसलिए भी नहीं लिखना चाहते थे की वक्त माकूल नहीं था. कारण? जिस टीम अन्ना पर शुरुआत में कोई ऊँगली भी नहीं उठा सकता था उसपर बाद में आरोपों की झड़ी लग गई थी. ऐसे में हर कोई स्टैंड नहीं लेना चाहता है, पल पल चीजें बदल रही हैं, कल पता नहीं क्या हो?
बहरहाल, जो भी हो जितने लोगों के विचार समाहित कर सका, किया है. विचारों को शब्दों में ढाल कर किताब कि शक्ल दी गई है. उम्मीद है आपको पसंद आएगी. 

अरुणोदय प्रकाश

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